Tuesday, September 13, 2011

वो वृक्ष मुझे जो रोप गया

मनुष्य की प्रथम पाठशाला मे अगर माता अध्यापक है तो पिता प्रधानाध्यापक के समान हैं| जो प्रत्यक्ष रूप से सामने ना आकर परोक्ष रूप से मानव के गठन मे अहम भूमिका निभाते हैं|  उन देवतुल्य को ही आधार मानकर कुछ पंक्तियाँ लिखने का प्रयास किया है आशा है आपको पसंद आएँगी -

मैं पलंग का सिरहाना पकड़ खड़ा था,
लड़खड़ाते कदमो से कुछ दूर ही चल सका |
दो दाँतों की किलकारी फखत करधनी बदन पर,
तर्जनीयों पर झूल गया जब जब मैं थका |

मेरे बेमानी प्रशनो के उत्तर मुझको मिलते,
मैं तब उनके सीने पर चढ़ जाता था |
वहीं रहीम वहीं राम को जाना,
वो सोते तो मैं भी सिर रख सो जाता था |

हर रोज़ कोई उलहना सुनकर मेरा,
कभी कभी ममता को भी डाँट लगा देते |
मेरी परीक्षा वाले दिन मे,
खुद जागते या जगकर मुझे जगा देते |

रावण का जलना नज़र न आता,
खुद नीचे झुक मुझे काँधे उठा लेते |
ठिठुरती जाड़ों की रातों मे अकसर,
अपने हिस्से की भी लिहाफ़ ऊढा देते |

कुछ की यादें हरी भरी, कुछ खट्टी मीठी मेरी भी,
अब तर्जनीयाँ हैं मुडी मुडी कुछ सीना अंदर धंसा हुआ |
वो कंधे हैं अब कुछ झुके झुके,
पलक काँपती, आवाज़ मे हो कुछ फँसा हुआ |

वो वृक्ष मुझे जो रोप गया,
अब कुछ कम छाया दे पता है |
मैं तरु नवीन मेरी जड़ें प्रबल,
गर्वित हो अपनी शाख टिकाता है |

                                                  अनुराग पांडेय

Monday, September 5, 2011

संदूक

छात्रावास, हमारी जिंदगी का एक अहम हिस्सा| जाहिर है जो वहाँ रहे हैं उनके पास एक संदूक ज़रूर रहा होगा| मेरे पास भी था आज भी है, पर यहाँ वो संदूक प्रतीक है हमारे उन पुराने साथियों का, सजीव या निर्जीव, जिन्हे हमने शायद भुला दिया है या हमारे पास वक़्त ही नही है की हम उन्हे याद करे, ऐसी ही एक शिकायत को कविता रूप दिया आशा है आपको पसंद आएगी -

आज हवा के झोंके से एक सांकल खटका,
मैं अक्सर बंद रहने वाले कमरे मैं जा अटका|

उसमे कुछ पुरानी यादें, पीतल के कुछ बर्तन और एक पुराना सा बक्स था,
उस पर मेरे छात्रावास के पते का, अभी भी हल्का सा अक्स था|

खोलते ही उस बिसारे को, सीलन की सी महक आई|
यूँ लगा अपने प्रति हुई कृतघनता की, आपत्ति उसने मुझसे जताई|

मानो कह रहा हो मुझसे, उन दिनो तो तुम्हारे बहुत काम आता था
तुम्हारी धरोहरे, तुम्हारी आबरू, सब मैं ही तो छुपाता था|

तुम्हारे माँ के हान्थ के बने लड्डूओं मे, मेरे अंदर ही चीटीयाँ लगती थीं|
तुम्हारे गाँव से आए अचार की, महक मेरे अंदर ही बसती थी|

कुछ तस्वीरों चिट्ठियों को मुझसे निकाल, घंटो मेरी टेक लिए रोते थे|
फिर उनको मेरी चोर जेब मे डाल, मेरी ही टेक बना कर सोते थे|

तुम मेज़बान मैं मेज़ भी बना हूँ, मेरे उपर जाम भी टकराए हैं|
अपने नीचे बेईमानी के पत्ते छुपा, तुम्हे जुएँ के दौर भी जिताए हैं|

सुना है उस तस्वीर की तकदीर, अब तुमसे जुड़ गयी है|
मैं तुम्हारे कल के गलियारे मे तन्हा, तुम्हारी ज़िंदगी नयी राह मुड़ गयी है|

तुम्हारे चारों तरफ आज, नये चेहरों की ज़मात है|
उन चेहरों को क्या भूल गये, जो तुम्हारी कोशिशों मैं तुम्हारे साथ थे|

                                                                               अनुराग पांडेय