Thursday, March 29, 2012

पदवी तेरी

एक मित्र का स्थान जीवन मे सर्वोत्तम माना गया है| जो निस्वार्थ भाव से आपकी प्रसन्नता मे सम्मिलित हो, जो सेवार्थ भाव से दुख मे आपकी सहायता करे वही उत्तम मित्र है | मेल मिलाप विरह जीवन के अंग हैं | मित्र भी मिलते हैं, कुछ समय के लिए दूर होते हैं, पर उनका स्थान हृदय मे अद्वितीय रहता है | यह रचना समर्पित कर रहा हूँ ऐसे ही एक मित्र पर, जो कुछ प्रहर बाद जापान से विदा लेगा  -

क्यूँ व्यथित हृदय से विदा करूँ,
कर्तव्य मित्र का अदा करूँ|

आँखों मे न अश्रु का वास हो,
मुखमंडल पर उल्लास हो|

यश कीर्ति संग तेरे भ्रमण करें,
वैभव विद्या गृह रमण करें|

हर सुबह तेरी फलदायी हो,
यह सृष्टि तेरी अनुयायी हो|

तुम बनो उदाहरण जन जन के,
प्रिय रहो हमेशा कण कण  के|

प्रतिभा बहु आयाम विभाजित हो,
रिपु समर सदैव पराजित हों|

हे ईश विनती  यह मेरी सुने,
अपने प्रियजन मे तुझे चुने|

पदवी तेरी उत्तम गगन सी हो,
प्रगति तीव्र तेरी 'पवन' सी हो|

                                अनुराग पांडेय

Friday, February 24, 2012

आग्रह

एक माता के लिए पुत्र हमेशा नासमझ और अज्ञान ही रहता है| वो हमेशा अपने पुत्र को छोटा ही मानती है चाहे उसकी उम्र कुछ भी हो| एक पुत्र जब माता की गोद से उतर कर इस जगत मे प्रवेश करने को होता है, वो छण एक माता के लिए बड़ा कष्टदायक होता है| यहाँ एक पुत्र माता से अनुमति ले रहा है अपने जीवन के संसाधन स्वयं जोड़ने की|  एक पुत्र के आग्रह को कुछ पंक्तियों मे बाँधा है आशा है आपको पसंद आएगा -

माँ अब मैं बड़ा होना चाहता हूँ,
अपने पैरों पर खड़ा होना चाहता हूँ|

मुझे अपने आँचल की छाँव से बाहर निकालो,
इस जग की तपती रेत पर तो डालो|

माना की मैं प्यादा और यह महासमर है,
चलकर जानूंगा क्या महारथियों की डगर है|

मैं कोमल हूँ पर वक़्त की धूप मे सिकूंगा,
अपनी कीमत जानूंगा जब बाज़ार मे खुद बिकूंगा|

मैं ग़लती का एहसास होना भी नही जानता हूँ,
सबसे बड़ी सज़ा अब तक तेरा आँखें तरेरना मानता हूँ|

मैं भी अपनी ग़लतियों से सीख लेना चाहता हूँ,
माँ मैं अपने पैरों पर खड़ा होना चाहता हूँ|

अब तो मैं अंधेरों से भी नही घबराता हूँ,
अपरिचित आहट पर खुद को तेरे पीछे नही छुपाता हूँ|

रातों मे डरकर तुझे आवाज़ भी नही देता हूँ,
डरा सहमा सही अंधेरे से लड़कर सो लेता हूँ|

तू चाहे ना माने मेरा अहम मुझे ललकारता है,
जीवन य़ज्ञ मे मेरी आहुति को पुकारता है|

व्यर्थ चिंता करती है मुझपर विश्वास तो कर,
अपने आशीष का हांथ मेरे ऊपर तो धर|

मेरी ख्याति तुझसे, तुझे अपनी पहचान देना चाहता हूँ,
माँ मैं अपने पैरों पर खड़ा होना चाहता हूँ|

                                                         अनुराग पांडेय

Friday, February 17, 2012

जब सुध थी

समस्त योनियों मे मनुष्य योनि को सर्वोत्तम बोला गया है| उत्तमता के साथ लघुता का होना अनिवार्य है| मनुष्य योनि मे ही जीव अपने मोक्ष का मार्ग सिद्ध कर सकता है, इस जीवन मृत्यु के चक्र से बाहर आ सकता है| धर्म जो भी हो, मार्ग सभी का एक ही गंतव्य को ले जाता है, आवश्यक है की अपने अहम को त्याग कर उपासना के मार्ग को पकड़ें| इसी सत्य को लिखने की कोशिश की है, आशा है आपको पसंद आएगी -

तन पर सिर्फ़ एक वस्त्र शेष,
जलने को कुछ मन लकड़ी|
याद हरि तब आए तुझे,
जब कंचन काया तेरी अकड़ी|

जब सुध थी हरि सुध न रही,
अब सुध बिसरी हरि याद आए|
जीवन भर एक मैं मे रहे,
वो मैं छूटा तब घबराए|

किस मद मे तुम थे इतराते,
नश्वर जग की नश्वर चीज़ों मे|
कण कण मे हैं व्याप्त हरि,
हर तत्व, तत्व के बीजों मे|

हरि का हर से प्रेम सत्य है,
हर हरि से क्यूँ ना प्रेम करे|
जिन बंधन मे तुम लिप्त सदा,
मुक्ति मार्ग है भज हरे हरे|

हरि स्वरूप हैं अलग अलग,
जप तप के हैं मार्ग अनेक|
सब मिलते एक ही मे जाकर,
गंतव्य सभी का मात्र एक|

चंदन वंदन न ही सही,
मन मे कटुता तो मत पालो|
आडंबर से हरें न हरि,
एक तुलसी दल से हर डालो|

                     अनुराग पांडेय

Wednesday, January 25, 2012

श्रेष्ठ धर्म

स्वामी विवेकानंद ने मनुष्यता की सेवा को सबसे बड़ा धर्म माना है उसी पर आधारित, गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर यह रचना आपके समक्ष रख रहा हूँ| ईश्वर की सबसे उत्कृष्ट रचना मनुष्य के लिए एक संदेश है की समस्त गुणों से सुसज्जित होने के उपरांत भी अन्भिग्योन की भाँति व्यहवार क्यूँ| कुछ प्रश्नोत्तरों के माध्यम से आप तक पहुँचाने की कोशिश है, उम्मीद करता हूँ आपको पसंद आएगी -

हे मनुष्य तुम द्रुतगामी |
तो तुम्हारी लगाम क्या ?

जब निश्चय तुम्हारा दृढ़ अटल |
तो सोचना अंजाम क्या ?

हो उठे तुम्हारा हृदय उद्वेलित |
तो तुम्हे इत्मिनान क्या ?

तुम अधीश हो मन के |
तो मानना कोई फरमान क्या ?

तुम हो रचयिता हर पृष्ठ के |
तो तुम्हारा इम्तिहान क्या ?

जब शीर्ष तुम्हारा लक्ष्य सधा |
तो कोई और मकाम क्या ?

तुम ज्ञानी ग्रंथों के ज्ञाता |
तो सीखोगे कोई कलाम क्या ?

पर शत्रु तुम्हारा तुम स्वयं |
तो फिर ऐसा इंतकाम क्या ?

तुम अपनी गति के हो कारण |
तो औरों पर इल्ज़ाम क्या ?

श्रेष्ठ धर्म है मनुजता की सेवा |
तो जानोगे रहीम क्या और राम क्या ?

                                   अनुराग पांडेय

Friday, January 20, 2012

प्रेम और प्रबंध विवाह (हास्य)

अपने समस्त विवाहित, अविवाहित और अर्धविवाहित मित्रों के लिए कुछ पंक्तियाँ लिखीं हैं| यह समर्पित हैं आपके घरों मे निवास करने वाले सर्व शक्तिमान के ऊपर, जिनके सम्मुख हम नतमस्तक हैं| प्रेम विवाह और प्रबंध विवाह का ज़रा सा अंतर बताने की कोशिश की है, आशा है आपको पसंद आएगी -

आज एक ग़ूढ बात बतलता हूँ,
प्रेम और प्रबंध विवाह का अंतर समझाता हूँ|

प्रेम विवाह मे आप एक दूसरे को, काफ़ी अरसे से जानते हैं,
मेरी होने वाली संगिनी देवी का काली रूप है, यह भली भाँति मानते हैं|

साल दो साल का भरपूर प्रेम, फिर आप आज्ञाकारी बन जाते हैं,
अपनी होनेवाली के समस्त तांडवों के आगे आत्मसमर्पण कर जाते हैं|

फिर विवाह मात्र एक रस्म है, जो रिश्तेदारों के सामने मनती है,
एक दूसरे के सारे टोने टटके समझ, जिंदगी बड़े इत्मिनान से चलती है|

यह दुनिया भी अजीब है इसे, अच्छी अंडरस्टॅंडिंग का नाम देती है,
यह जान लो स्व आमंत्रित प्रकोप के अंडर शांतिपूर्वक स्टॅंडिंग ही काम देती है|

प्रबंध विवाह इससे अलग है, लोग इसके रीति रिवाज अलग बतातें हैं,
समझ तो नही आता, पर आजकल होनेवाले इसमे कॉर्टशिप पीरियड बिताते हैं|

कुछ अज्ञान उत्साहित हो सोचते हैं, इस वक़्त मे एक दूसरे को समझ लेना है,
अरे समझो प्रेम विवाह के ४ साल के सिलबस को, दो महीने मे निपटा कर इक्जाम देना है|

देर से सही आँखें खुल जाती हैं, प्रेम विवाह मे हमला आप सामने से पाते है,
देखा जाता है इसमे सारे ब्रह्मास्त्र, ज़्यादातर दूर संचार के माध्यम से आते हैं|

सोंचो की जो सामने नही है, फिर खून का घूँट पी कर मूक रह जाते हो,
साल दो साल सब रमणीय लगता है, पर उसके बाद आत्मसमर्पण कर जाते हो|

सब बातों का सार यही है, नाग लपेटे कैलाषी जब चरणो मे पड़ गये,
अपना जीवन ख़त्म समझना जब सर्व शक्तिमान के आगे तुम अकड़ गये|

                                                                                                  अनुराग पांडेय