Friday, December 2, 2011

धुआँ धुआँ सा रहने दो

अपने छात्रावास के दिनो की एक कविता आपके सामने ला रहा हूँ, हास्य है, शीर्षक भी मजेदार है | आशा करता हूँ आपको पसंद आएगी -

तुम कमसिन हो, तुम नादां हो,
तुम नाज़ुक हो, तुम भोली हो |
तुम पवित्र हो, तुम सेक्रेड (sacred) हो,
तुम वेजिटेरियन (vegetarian) हो, तुम होली हो |

तुम इन होठों से लगती हो,
और सीने मे उतर जाती हो |
फिर उन्ही होठों से,
कभी लकीर, कभी चक्कर,
कभी गुबार बन निकल जाती हो |

तुम एक से शुरू होती हो,
और सबमे बँट जाती हो |
जितने हांतों मे गयी,
उतनी ही घट जाती हो |

तुम दो की तुम ढाई की,
तुम तीन की भी आती हो |
तुम काली मोटी, तुम पतली गोरी,
और कभी कभी एक पत्ते मे सिमट जाती हो |

दिलबर के मिलने की खुशी हो,
बिछड़ने के गम मे भी काम आती हो |
तुम हर महफ़िल की शान हो,
धुएँ मे चाहने वालों की तस्वीर भी बनाती हो |

मेरे हांतों मे हमेशा तुम्हारा साथ रहता है,
क्यूँ हर कोई तुम्हे चिंता का साथी कहता है |

तुम उंगलियों पर टिककर,
बदन मे जुम्बिश सी दे जाती हो|
क्यूँ अपने बेबाक आशिक़ों से एक दिन,
सब नाते तोड़, नब्ज़ चुरा लाती हो |

                                            अनुराग पांडेय


Tuesday, November 29, 2011

दो रुपये

आज मन कुछ बचपन मे निकल गया, बैठे बैठे उन फेरीवालों की याद आ गयी जो हमारी गलियों से निकला करते थे | सोंच हुई की सरल भाषा मे अपनी उन यादों को बाँधने की कोशिश करूँ, तो यह रचना बन गयी | हम सब से जुड़ी है यह, आशा करता हूँ आपको पसंद आएगी -

हर एक फेरी वाले की एक टेक होती थी,
जो लड़कपन मे मुझे याद थीं|

बाँसुरी के बजने पर बाहर जाना,
कल चाची दो रुपये दे गयीं थीं
गुब्बारे वाले से अठन्नी का रंगीन चश्मा लाना |

कभी डमरू भी बजता तो हम दौड़ कर जाते,
चाची के दिए दो रुपये मे से
चूरन वाले से चार आने की खट्टी मीठी गोली ले आते|

बड़े काले काली घटा वाले सुन मन उछल जाता था,
दो रुपये मे अभी बहुत बचा है
आठ आने के जामुन मे पूरा परिवार ख़ाता था|

भोपूं की आवाज़ सुन गले मे कुछ ठंडा लगता था,
तीन चवन्नीयों को चार बार गिनता
पर चार आने की बर्फ के लिए दोपहर भर जागता था|

फिर शाम को तवे पर टन टन की आवाज़ आती थी,
अपनी बची कुची पूंजी उठाता
आठ आने के दो बताशों मे मानो जन्नत मिल जाती थी|

एक दूसरे को बैगनी जीभ चिढ़ाना,
हरे किनारे के लाल शीशे से सब लाल नज़र आना,
चूरन की पूडिया से आख़िरी तिनका चुग कर खाना,
बर्फ की डंडीयान इकट्ठा कर झोपड़ी बनाना,
बताशे के दोने से पानी की आख़िरी बूँद तक पी जाना,

यह अनमोल खुशियाँ बस दो रुपये मे आती थी,
सोंचो तो हमारे बचपन की ज़िद पर,
फेरीवालों की पूरी गृहस्थी चल जाती थी|

आज की ज़िद कुछ और कुछ अलग ही स्वाद है,
हर एक फेरीवाले की एक टेक होती थी,
जो सिर्फ़ और सिर्फ़ बस मेरी एक याद है, बस एक याद है|

                                                                अनुराग पांडेय


Friday, November 25, 2011

शब्द और मिल जाएँगे

" नर हो न निराश करो मन को " गुप्त जी की इन पंक्तियों को आधार मान कर इस रचना को लिखने का प्रयास किया है , उम्मीद करता हूँ आपको पसंद आएँगी -

पन्ने पलटो तो सही,
शब्द और मिल जाएँगे |
तुम चलना तो शुरू करो,
दोस्त तुमसे जुड़ जाएँगे |

ख़त्म समझते हो जिस कहानी को,
वो नया रुख़ लेगी |
मील के पत्थर पर पुराने चेहरे,
फिर तुम्हे दिख जाएँगे |

जिस राह पर तुम हो,
वो बे मंज़र ही सही |
कोई गाँव तो आने दो,
आशियाने भी बस जाएँगे |

खाली पड़े घरौंदों को,
देखकर इतना अफ़सोस क्यूँ |
कोई शहनाई तो बजने दो,
शामियाने और तन जाएँगे |

यह महफ़िल मददगारों की,
दो दिन की मेहमान ही सही |
खुशियाँ दिल से तो बाँटों,
जश्न और भी मन जाएँगे |

हर सुबह एक नयी सोंच,
एक ललक का नाम है ज़िंदगी |
तुम कोशिश तो करो पाने की,
वो पत्थर से भी निकल जाएँगे |

                         अनुराग पांडेय

Friday, November 18, 2011

बस ऐसी कोशिश

यह रचना आज मैने खुद नही लिखी, यह आज मेरे दिल ने मुझसे लिखवाई| अंदर कहीं कुछ कचोट रहा था तो ऐसे शब्द बाहर आए| किसी के लिए अश्क यह साधन बनते हैं, मैने अपनी कलम को साधन बना लिया| उम्मीद करता हूँ आपको पसंद आएगी -

आज रो लूँ या मन उदास करूँ,
किस चेहरे पर खुशी की आस करूँ|

यूँ बैठ अकेला कश्ती मे,
साहिल की मैं तलाश करू,
आज रो लूँ या मन उदास करूँ,
किस चेहरे पर खुशी की आस करूँ|

गमगीन शाम के ओझल पट,
किस सुबह की मैं क्यास करूँ,
आज रो लूँ या मन उदास करूँ,
किस चेहरे पर खुशी की आस करूँ|

बिन मोड़ चलीं जाती राहें,
दूर तक  या आँखे पास करूँ,
आज रो लूँ या मन उदास करूँ,
किस चेहरे पर खुशी की आस करूँ|

जब रूहे शुष्क दिल रूठें हों,
किस तरह का मैं उल्लास करूँ,
आज रो लूँ या मन उदास करूँ,
किस चेहरे पर खुशी की आस करूँ|

जिस तरह मिलें दो नदी के छोर,
वो झरना बनने का प्रयास करूँ,
आज रो लूँ या मन उदास करूँ,
किस चेहरे पर खुशी की आस करूँ|

सब अपने गम मे मसरूफ़ से,
मैं अपने गम मे क्या ख़ास करूँ,
आज रो लूँ या मन उदास करूँ,
किस चेहरे पर खुशी की आस करूँ|

सब एक नीड मे साथ हों खुश
बस ऐसी कोशिश हे काश करूँ,
आज रो लूँ या मन उदास करूँ,
किस चेहरे पर खुशी की आस करूँ|

                              अनुराग पांडेय

Friday, October 14, 2011

अश्क


हर एक खत पर उनके हमने अश्क बहाएँ हैं
बाद मुद्दत के वो हमसे मिलने आएँ हैं |

अब जब वक़्त है हम उनसे रूबरू हैं
वोही अश्क मेरे चेहरे पर अल्फ़ाज़ बन उभर आएँ हैं |

हर्फ ए रुखसार पर अल्फ़ाज़ कुछ यूँ हैं
अक्स उनके मेरे दीद मे मानिंद मोम से पिघलाएँ हैं |

तुम बेफ़िक्र ही सही और देर से आते
हमारी मजबूरी खुदा से चंद साँसे जो उधार लाएँ हैं |

खबर उनको भी है लम्हे का मेहमान ये इश्क़ है
वजह फ़िक्र ए ज़िक्र मेरे दर पर बे-नक़ाब नही आएँ हैं |

ज़न्नत नसीब उनको जो खुदा मे खोते हैं
तुम जैसे संगदिल ही आशिक़ों के खुदा कहलाएँ हैं |

                                                         अनुराग पांडेय



Tuesday, September 13, 2011

वो वृक्ष मुझे जो रोप गया

मनुष्य की प्रथम पाठशाला मे अगर माता अध्यापक है तो पिता प्रधानाध्यापक के समान हैं| जो प्रत्यक्ष रूप से सामने ना आकर परोक्ष रूप से मानव के गठन मे अहम भूमिका निभाते हैं|  उन देवतुल्य को ही आधार मानकर कुछ पंक्तियाँ लिखने का प्रयास किया है आशा है आपको पसंद आएँगी -

मैं पलंग का सिरहाना पकड़ खड़ा था,
लड़खड़ाते कदमो से कुछ दूर ही चल सका |
दो दाँतों की किलकारी फखत करधनी बदन पर,
तर्जनीयों पर झूल गया जब जब मैं थका |

मेरे बेमानी प्रशनो के उत्तर मुझको मिलते,
मैं तब उनके सीने पर चढ़ जाता था |
वहीं रहीम वहीं राम को जाना,
वो सोते तो मैं भी सिर रख सो जाता था |

हर रोज़ कोई उलहना सुनकर मेरा,
कभी कभी ममता को भी डाँट लगा देते |
मेरी परीक्षा वाले दिन मे,
खुद जागते या जगकर मुझे जगा देते |

रावण का जलना नज़र न आता,
खुद नीचे झुक मुझे काँधे उठा लेते |
ठिठुरती जाड़ों की रातों मे अकसर,
अपने हिस्से की भी लिहाफ़ ऊढा देते |

कुछ की यादें हरी भरी, कुछ खट्टी मीठी मेरी भी,
अब तर्जनीयाँ हैं मुडी मुडी कुछ सीना अंदर धंसा हुआ |
वो कंधे हैं अब कुछ झुके झुके,
पलक काँपती, आवाज़ मे हो कुछ फँसा हुआ |

वो वृक्ष मुझे जो रोप गया,
अब कुछ कम छाया दे पता है |
मैं तरु नवीन मेरी जड़ें प्रबल,
गर्वित हो अपनी शाख टिकाता है |

                                                  अनुराग पांडेय

Monday, September 5, 2011

संदूक

छात्रावास, हमारी जिंदगी का एक अहम हिस्सा| जाहिर है जो वहाँ रहे हैं उनके पास एक संदूक ज़रूर रहा होगा| मेरे पास भी था आज भी है, पर यहाँ वो संदूक प्रतीक है हमारे उन पुराने साथियों का, सजीव या निर्जीव, जिन्हे हमने शायद भुला दिया है या हमारे पास वक़्त ही नही है की हम उन्हे याद करे, ऐसी ही एक शिकायत को कविता रूप दिया आशा है आपको पसंद आएगी -

आज हवा के झोंके से एक सांकल खटका,
मैं अक्सर बंद रहने वाले कमरे मैं जा अटका|

उसमे कुछ पुरानी यादें, पीतल के कुछ बर्तन और एक पुराना सा बक्स था,
उस पर मेरे छात्रावास के पते का, अभी भी हल्का सा अक्स था|

खोलते ही उस बिसारे को, सीलन की सी महक आई|
यूँ लगा अपने प्रति हुई कृतघनता की, आपत्ति उसने मुझसे जताई|

मानो कह रहा हो मुझसे, उन दिनो तो तुम्हारे बहुत काम आता था
तुम्हारी धरोहरे, तुम्हारी आबरू, सब मैं ही तो छुपाता था|

तुम्हारे माँ के हान्थ के बने लड्डूओं मे, मेरे अंदर ही चीटीयाँ लगती थीं|
तुम्हारे गाँव से आए अचार की, महक मेरे अंदर ही बसती थी|

कुछ तस्वीरों चिट्ठियों को मुझसे निकाल, घंटो मेरी टेक लिए रोते थे|
फिर उनको मेरी चोर जेब मे डाल, मेरी ही टेक बना कर सोते थे|

तुम मेज़बान मैं मेज़ भी बना हूँ, मेरे उपर जाम भी टकराए हैं|
अपने नीचे बेईमानी के पत्ते छुपा, तुम्हे जुएँ के दौर भी जिताए हैं|

सुना है उस तस्वीर की तकदीर, अब तुमसे जुड़ गयी है|
मैं तुम्हारे कल के गलियारे मे तन्हा, तुम्हारी ज़िंदगी नयी राह मुड़ गयी है|

तुम्हारे चारों तरफ आज, नये चेहरों की ज़मात है|
उन चेहरों को क्या भूल गये, जो तुम्हारी कोशिशों मैं तुम्हारे साथ थे|

                                                                               अनुराग पांडेय

Monday, July 18, 2011

चैतन्य सी जो गति होये

कण कण मे बस रहे श्री हरि की वंदना मे कुछ पंक्तियाँ अर्पित की हैं | एक भक्त की अभिलाषा है की वो प्रभु को मूर्त रूप मे देखे, उसकी इस आस को पंक्तियों मे बाँधने की कोशिश है आशा करता हूँ आपको पसंद आएगी | यह अवधी भाषा मे मेरा प्रथम प्रयास है -

तिनुक न जग की लाज करूँ
मन बैरागी होये |
जागत हों सो हरि दिखे
हरि ही दिखे जो सोये ||

सुमिर करत यों आस लगी
कबहूँ को दर्शन होये |
उई झाकिन आन्खिन धरत
उई निकसे जब रोए  ||

हृदय बसे मन प्राण बसें
हरि नाम स्वास से होये |
आठ पहर उई साथ चलत
मूरत दिखे न मोहे ||

भजञाम तिहारो काज करूँ
चैतन्य सी जो गति होये |
जीवित हों तो भक्ति तेरी
जीव वैकुंठ मे खोए ||

अब अँखियन के समक्ष प्रभु
साकार रूप जो होये |
हरिधाम मिले मोहे मोक्ष प्रभु
अरज करूँ कर जोए ||
                        अनुराग पांडेय

Thursday, June 30, 2011

रेखा वापस वहीं बढ़ा देंगे

बल भरकर भुजाओं मे हमने
आज उन्हे ललकारा है,
सरकारों के सरताजों ने,
भी खूब उन्हे फटकारा है

ना आँख धरो उस वादी पर
जो खुद जन्नत कहलाती है
जिस जगह की ठंडी हवाओं मे
केसर खुद घुल जाती है

वो भूमि हमारी गगन हमारा
हर तिनका हिन्दुस्तानी है
काट गिरा देंगे उस सिर को
जो कहेगा यह बेमानी है

किराए के हथियारों पर
दहशतगर्दी करना ठीक नही
अमन शांति के मकसद को
कमजोर समझना ठीक नही

एक आवाज़ पर भारत माँ की
बच्चा बच्चा बलि चढ़ा देगा
जो नक्शा ऊपर काट दिया है
वो रेखा वापस वहीं बढ़ा देगा.

                    अनुराग पांडेय

Tuesday, June 14, 2011

तुम न होते तो क्या होता

कोई ऐसा अज़ीज़ होता है, की एक पल अगर उसके न होने के बारे मे सोचा जाए तो ख्यालात हमारे, हमारे जीने को बेमानी बता देते हैं. ऐसी ही कुछ सोंचों को इकट्ठा कर चंद पंक्तियों मे बाँधने की कोशिश की है उम्मीद करता हूँ आपको पसंद आएगी -

तुम न होते तो क्या होता
एक गहरा बिखरा सन्नाटा होता
आहट होती यूँ लगता कोई मेरे दर आता होता.

तुम न होते तो क्या होता
एक धून्ध, गहरा धुआँ होता
सिहरन होती यूँ लगता कोई आँचल मुझे छुआ होता

तुम न होते तो क्या होता
एक बिखरी बाहों का इंतज़ार होता
जुम्बिश होती यूँ लगता आगोश मे संसार होता

तुम न होते तो क्या होता
एक बेमानी धड़कता दिल तन्हा होता
नब्ज़ डूबती यूँ लगता अक्स जिस्म से फनाह होता

तुम न होते तो क्या होता
एक शायर न कभी लिखा होता
इस बाज़ार मे यूँ लगता कोई कैस अभी दिखा होता

तुम न होते तो क्या होता
एक बुरा ख्वाब जो सच्चाई होता
तुम हो तो ऐसे ख्वाब क्यूँ देखूं मैं
तुम हो तो यूँ लगता है
बंज़र मैं उगता गुलाब देखूं मैं
चाँद बिन महताब देखूं मैं.

                   अनुराग पांडेय

Tuesday, May 31, 2011

सब बदल गया जो पहले था

चंद माह पहले एक मार्मिक सच का सामना किया हम सबने. प्रकृति के ऐसे परिवर्तन जिसने धरा को अपनी को अपनी धुरी से हिला दिया. बहुत दिनो से सोंच मे था की इस शीर्षक पर कुछ लिखूं परंतु इसमे भावनाओं का इतना समावेश था की हाँथ काँप उठे. फिर भी लिखने की कोशिश की है आशा है आपको पसंद आएगी -

यूँ एक किनारे पत्थर पर
क्षितिज तक निगाह मे
अपना कोई बिछड़ा है
वो बैठा जिसकी राह मे.

कुछ दिन पहले सैलाब था
ज़मीन की गहरी थाह मे
अब रोज़ तूफान दम तोड़ते
रोने वालों की आह मे.

धुल गये जो निकले आँखों से
काली बदरी की छाह मे
वो छूट गया क्यूँ नही रहा
एक माँ की जकड़ी बाह मे.

सब बदल गया जो पहले था
यूँ जड़ से एक कराह मे
फिर क्यूँ वो कौतूहलवश
भागा जाता अपवाह मे.

अब नही है वो जो अपना था
छिप गया है गहरे स्याह मे
आधार बना इस सच्चाई को
हम खड़े हैं तेरी पनाह मे.

संबल देता सहराता
सुकून है उसकी फाह मे
यूँ भूल बिसारे वक़्त को
नये हर्फ लिखें उत्साह मे.

                   अनुराग पांडेय




Tuesday, March 29, 2011

ख्वाब था शायद

अपनों से दूर होने का गम सबको होता है. मुझे भी है, कुछ अल्फ़ाज़ बटोरे हैं इस हाल
को ब्यान करने के लिए. उम्मीद है आपकी दाद के काबिल होंगे -

कुछ हुआ यूँ की वो मेरी तरफ आये,
करीब बैठे फिर हौले से मुस्कुराए.

यूँ ऊँगली आसमाँ की तरफ करके,
तारों को जोड़ कर चित्र बनाए.
अधखिले चाँद की कांख पर
फिर झूला भी झूल कर आए.

वो तेरे हाँथो की जुम्बिश थी,
जो बदन पर सिरहन का न ज़ोर था.
खामोशी मे दो पत्‍थर
पत्थर पर हम और समंदर का शोर था.

मुलाकात कुछ ऐसी थी
की लफ़्ज़ों की हमे ज़रूरत न थी
दो जोड़ी पलकें यूँ झपककर
खुद करती हमारे हाल ब्यान थी

वक़्त की रेत, सुबह का अंदेशा
मुट्ठी से फिसलकर जा रहा था
थम नही जाता क्यूँ ये मंज़र
ये अहसास हमे और करीब ला रहा था.

ख्वाब था शायद, ख्वाब ही है
आजकल ख्वाब भी आने लगे हैं.
आँखें तो बंद रहती हैं
पर ख्वाबों मे हम कुछ दूर जाने लगे हैं.

                                    अनुराग पांडेय

Thursday, January 6, 2011

मेहनत को मेरी

नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ एक नयी शुरुआत की कोशिश है.
यह हर तीन पंक्तियाँ आपसे कुछ कहने की इक्च्छा रखती हैं. आशा है आपको पसंद
आएँगी.

मेहनत को मेरी यूँ जाया ना करो
उन पत्थरों को मत निकालो
जो पानी मुहाने पर लाए हैं.

कमीज़ों की तारीफ सही है
पर गिरहबानो मैं भी झाँको.
अंदर जिसने कई जाहिल छुपाए हैं.

उन सूरतों को मत सराहो,
जिसकी सीरत ही खाक हो.
इस उजाले मैं कई स्याह दिल समाएँ हैं.

बयारें बहती है बहुत
पर उस महक को पहचानो.
साँसों से उतरकर जिसने कदम लड़खड़ाए हैं.

उस सोंच को पालो
जो तुम्हारी चादर मैं उघारी न हो
ना आसरा दो उसे जिससे चादर रुमाल नज़र आए हैं.

सब कुछ भुला देना
दीवानगी बुरी नही बिल्कुल
इश्क़ और ईश्वर दीवानों को ही मिल पाए हैं.

                                                       अनुराग पांडेय