Tuesday, November 29, 2011

दो रुपये

आज मन कुछ बचपन मे निकल गया, बैठे बैठे उन फेरीवालों की याद आ गयी जो हमारी गलियों से निकला करते थे | सोंच हुई की सरल भाषा मे अपनी उन यादों को बाँधने की कोशिश करूँ, तो यह रचना बन गयी | हम सब से जुड़ी है यह, आशा करता हूँ आपको पसंद आएगी -

हर एक फेरी वाले की एक टेक होती थी,
जो लड़कपन मे मुझे याद थीं|

बाँसुरी के बजने पर बाहर जाना,
कल चाची दो रुपये दे गयीं थीं
गुब्बारे वाले से अठन्नी का रंगीन चश्मा लाना |

कभी डमरू भी बजता तो हम दौड़ कर जाते,
चाची के दिए दो रुपये मे से
चूरन वाले से चार आने की खट्टी मीठी गोली ले आते|

बड़े काले काली घटा वाले सुन मन उछल जाता था,
दो रुपये मे अभी बहुत बचा है
आठ आने के जामुन मे पूरा परिवार ख़ाता था|

भोपूं की आवाज़ सुन गले मे कुछ ठंडा लगता था,
तीन चवन्नीयों को चार बार गिनता
पर चार आने की बर्फ के लिए दोपहर भर जागता था|

फिर शाम को तवे पर टन टन की आवाज़ आती थी,
अपनी बची कुची पूंजी उठाता
आठ आने के दो बताशों मे मानो जन्नत मिल जाती थी|

एक दूसरे को बैगनी जीभ चिढ़ाना,
हरे किनारे के लाल शीशे से सब लाल नज़र आना,
चूरन की पूडिया से आख़िरी तिनका चुग कर खाना,
बर्फ की डंडीयान इकट्ठा कर झोपड़ी बनाना,
बताशे के दोने से पानी की आख़िरी बूँद तक पी जाना,

यह अनमोल खुशियाँ बस दो रुपये मे आती थी,
सोंचो तो हमारे बचपन की ज़िद पर,
फेरीवालों की पूरी गृहस्थी चल जाती थी|

आज की ज़िद कुछ और कुछ अलग ही स्वाद है,
हर एक फेरीवाले की एक टेक होती थी,
जो सिर्फ़ और सिर्फ़ बस मेरी एक याद है, बस एक याद है|

                                                                अनुराग पांडेय


Friday, November 25, 2011

शब्द और मिल जाएँगे

" नर हो न निराश करो मन को " गुप्त जी की इन पंक्तियों को आधार मान कर इस रचना को लिखने का प्रयास किया है , उम्मीद करता हूँ आपको पसंद आएँगी -

पन्ने पलटो तो सही,
शब्द और मिल जाएँगे |
तुम चलना तो शुरू करो,
दोस्त तुमसे जुड़ जाएँगे |

ख़त्म समझते हो जिस कहानी को,
वो नया रुख़ लेगी |
मील के पत्थर पर पुराने चेहरे,
फिर तुम्हे दिख जाएँगे |

जिस राह पर तुम हो,
वो बे मंज़र ही सही |
कोई गाँव तो आने दो,
आशियाने भी बस जाएँगे |

खाली पड़े घरौंदों को,
देखकर इतना अफ़सोस क्यूँ |
कोई शहनाई तो बजने दो,
शामियाने और तन जाएँगे |

यह महफ़िल मददगारों की,
दो दिन की मेहमान ही सही |
खुशियाँ दिल से तो बाँटों,
जश्न और भी मन जाएँगे |

हर सुबह एक नयी सोंच,
एक ललक का नाम है ज़िंदगी |
तुम कोशिश तो करो पाने की,
वो पत्थर से भी निकल जाएँगे |

                         अनुराग पांडेय

Friday, November 18, 2011

बस ऐसी कोशिश

यह रचना आज मैने खुद नही लिखी, यह आज मेरे दिल ने मुझसे लिखवाई| अंदर कहीं कुछ कचोट रहा था तो ऐसे शब्द बाहर आए| किसी के लिए अश्क यह साधन बनते हैं, मैने अपनी कलम को साधन बना लिया| उम्मीद करता हूँ आपको पसंद आएगी -

आज रो लूँ या मन उदास करूँ,
किस चेहरे पर खुशी की आस करूँ|

यूँ बैठ अकेला कश्ती मे,
साहिल की मैं तलाश करू,
आज रो लूँ या मन उदास करूँ,
किस चेहरे पर खुशी की आस करूँ|

गमगीन शाम के ओझल पट,
किस सुबह की मैं क्यास करूँ,
आज रो लूँ या मन उदास करूँ,
किस चेहरे पर खुशी की आस करूँ|

बिन मोड़ चलीं जाती राहें,
दूर तक  या आँखे पास करूँ,
आज रो लूँ या मन उदास करूँ,
किस चेहरे पर खुशी की आस करूँ|

जब रूहे शुष्क दिल रूठें हों,
किस तरह का मैं उल्लास करूँ,
आज रो लूँ या मन उदास करूँ,
किस चेहरे पर खुशी की आस करूँ|

जिस तरह मिलें दो नदी के छोर,
वो झरना बनने का प्रयास करूँ,
आज रो लूँ या मन उदास करूँ,
किस चेहरे पर खुशी की आस करूँ|

सब अपने गम मे मसरूफ़ से,
मैं अपने गम मे क्या ख़ास करूँ,
आज रो लूँ या मन उदास करूँ,
किस चेहरे पर खुशी की आस करूँ|

सब एक नीड मे साथ हों खुश
बस ऐसी कोशिश हे काश करूँ,
आज रो लूँ या मन उदास करूँ,
किस चेहरे पर खुशी की आस करूँ|

                              अनुराग पांडेय