Friday, December 2, 2011

धुआँ धुआँ सा रहने दो

अपने छात्रावास के दिनो की एक कविता आपके सामने ला रहा हूँ, हास्य है, शीर्षक भी मजेदार है | आशा करता हूँ आपको पसंद आएगी -

तुम कमसिन हो, तुम नादां हो,
तुम नाज़ुक हो, तुम भोली हो |
तुम पवित्र हो, तुम सेक्रेड (sacred) हो,
तुम वेजिटेरियन (vegetarian) हो, तुम होली हो |

तुम इन होठों से लगती हो,
और सीने मे उतर जाती हो |
फिर उन्ही होठों से,
कभी लकीर, कभी चक्कर,
कभी गुबार बन निकल जाती हो |

तुम एक से शुरू होती हो,
और सबमे बँट जाती हो |
जितने हांतों मे गयी,
उतनी ही घट जाती हो |

तुम दो की तुम ढाई की,
तुम तीन की भी आती हो |
तुम काली मोटी, तुम पतली गोरी,
और कभी कभी एक पत्ते मे सिमट जाती हो |

दिलबर के मिलने की खुशी हो,
बिछड़ने के गम मे भी काम आती हो |
तुम हर महफ़िल की शान हो,
धुएँ मे चाहने वालों की तस्वीर भी बनाती हो |

मेरे हांतों मे हमेशा तुम्हारा साथ रहता है,
क्यूँ हर कोई तुम्हे चिंता का साथी कहता है |

तुम उंगलियों पर टिककर,
बदन मे जुम्बिश सी दे जाती हो|
क्यूँ अपने बेबाक आशिक़ों से एक दिन,
सब नाते तोड़, नब्ज़ चुरा लाती हो |

                                            अनुराग पांडेय