Monday, June 1, 2020

दो चार आने वाला बचपन

हमारे जीवन का सबसे सुनेहरा समय हमारा बचपन था | बेफ़िक्रा, बेखौफ़, निश्चिंत सा, जिसकी हम सब कुछ ना कुछ यादें समेट कर रखे हैं.|  इस अकस्मात गृह बंदी मे अपने बचपन को पुनः अपने बच्चों के संग ज़्यादा जीने का अवसर मिला| आज का बचपन कुछ हद तक अपने बचपन की तरह ही लगा पर यह भी सच है की कुछ विषमताएँ भी सॉफ दिखीं| आज का बचपन भी बेफ्रिक और निश्चिंत है पर शायद बेखौफ़ नही है| वज़ह उसकी कहीं ना कहीं हम ही हैं | आज एक प्रश्न के उत्तर को देने मे थोड़ा असहज महसूस हुआ की "आप अपने बचपन मे क्या करते थे?" प्रश्न ठीक है पर जिस समय पूछा गया शायद वो समय ठीक नही| इसी प्रश्न के उत्तर मे आपके हमारे बचपन के कुछ बेफिक्री के पलों को पंक्तियों मे पिरोया है उम्मीद करता हूँ आपको पसंद आएँगे - 

रबर का पहिया लकड़ी की चाबुक से सरपट गया
नंगे पैर दौड़ने वाला बचपन उसके पीछे भागके कट गया |

चार आने का सौदा यूँही हन्थेलि पर बट गया
रंगीन जीभ वाला बचपन उसके चटकारों मे कट गया |

साढ़े तीन की तरकारी को चार मे लाने झट गया
कुलफी वाला बचपन उन आठ आनो के जश्न मे कट गया |

जेठ की दोपहर मे बेबाक ही धूप से लिपट गया
टोली वाला बचपन तो लू से लोहा लेते हुए कट गया|

दो रुपेये की गेंद से कई शामो का खेल निपट गया
गली वाला बचपन तो तड़ी, गिट्टी फोड़ खेलके कट गया |

गद्दी पर बैठने की आस मे हर कहीं से लटक गया
उँची साइकल वाला बचपन तो कैंची चलाके कट गया |

काग़ज़ की फुकनी से साबुन का बुलबुला बनकर फट गया
उड़ने वाला बचपन उसमे सात रंग तलाशते हुए कट गया |

पापा की डाँट पर अक्सर मा के पीछे सिमट गया
शरारत वाला बचपन उनसे आँख मिचोली खेलते कट गया |

कुछ अबोध सवालों के जवाबों मे मैं आज भटक गया
वो दो चार आने वाला बचपन भी कई यादें देकर कट गया |

                                                                         अनुराग पांडेय

Sunday, May 3, 2020

एक किरदार ऐसा भी......

आज बहुत समय पश्चात अपनी लेखनी को आगे बढ़ाया है, मानो जीवन की इस आपाधापी मे मेरी कलम मे जंग सा लगा दिया था | हर कार्य के लिए वक़्त था पर जो कार्य सबसे सुखद अनुभूति देता है वो कहीं पीछे छूट गया | आज जब सारा विश्व एक विषम परिस्थिति मे है, मानव की गति मानो अवरुद्ध सी हो गयी है, इस काल मे एक ऐसे व्यक्तित्व को आपके सामने लाने की कोशिश कर रहा हूँ जो हमारी आपकी रोज़ की ज़िंदगी का एक बहुत अहम हिस्सा है | इस प्रतिबंधित अवकाश मे मुझे आपको सबको उस अहम हिस्से को एक नये नज़रिए से देखने का अवसर प्राप्त हुआ | इसी नज़रिए को कुछ पंक्तियों मे पिरोया हैआशा करता हूँ आपको पसंद आएगा -

दिनभर तो लगी रहती है, कभी जताती नही |
न जाने कब उठती है, बेवज़ह किसी को उठाती नही |

खुद ही रोज़ थकती है, किसी को थकाती नही |
सबकी ज़िद्दे जुगाड़ती, अपनी ज़रूरत कभी बताती नही |

सबकी मित्र सी फिरती, किसी मे भेद लाती नही |
सबको रूठने का हक, खुद किसी से रूठ पाती नही |

स्वयं को सब पर खर्चती, खुद की कोई थाती नही |
सबके श्रम की चर्चा, वह मेहनत करते अघाती नही |

सबके सपनो को सहेजती, अपने सपने सजाती नही |
शायद सुबह की चिंता मे, खुद की पीठ टिकातीनही |

हर घर की कुछ ऐसी सी कहानी, बाहर से नज़र आती नही |
घर पर हैं, तो इस किरदार की कीमत आँकी जाती नही |

कितने ही पर्यायों से सज्जित, मैं को कभी दिखाती नही |
वह लक्ष्मी शोभा स्वामिनी, यूँही गृह की बन जाती नही |

                                                                          अनुराग पांडेय