आज फिर अतीत के पन्नो को हमने पलट कर देखा है ,
वो एक रुपये की चाय
और आठ आने के समोसे
वो कपड़े के झोले
और कागज के लिफाफे
वो घड़े मे रखा पानी
और पानी के बताशे
वो गली मोहल्ले मे बेबाकी के हुल्लड़,
और सोंधी मीठी दही के भरे से कुल्लड़.
मिट्टी से बने थे, मिट्टी मे फेका है,
आज फिर अतीत के पन्नो को हमने पलट कर देखा है .-२
वो बुजुर्गों की शतरंज
और बुढ़िया के बाल
वो बदी की पतंगबाज़ी
और कमीज़ की बड़ी नाप
वो टेसू का पीला रंग
और कालिख का साँप
वो दाँतों मे खाड़िया दबाकर फिर माँ से छुपाना
और चार आने चुराकर छुपकर कॅमपॅट खाना.
वो गलियाँ अलग थीं जहाँ अपना बचपन महका है
आज फिर अतीत के पन्नो को हमने पलट कर देखा है .-२
गर गौर से देखें
उन पन्नो की लिखावट अब मिट रही है
जिंदगी है छोटे दायरे मैं सिमट रही है
गलियाँ सुनसान
मोहल्लों मैं सन्नाटा है
सर्दी की दोपहरों मैं भी सिर्फ़
राहगीर ही नज़र आता है
आज नही होती वो बैठक, वो अलाव जिसमे मूँगफली फोड़ खाते थे,
ना दिखती है वो सनकी बुढ़िया, जिसे पगली दादी चिढ़ाते थे.
ये माहौल ही अलग है, हर ठिठोली की सीमा रेखा है,
आज फिर वर्तमान को हमने अतीत से तौल कर देखा है. -२
वो एक रुपये की चाय
और आठ आने के समोसे
वो कपड़े के झोले
और कागज के लिफाफे
वो घड़े मे रखा पानी
और पानी के बताशे
वो गली मोहल्ले मे बेबाकी के हुल्लड़,
और सोंधी मीठी दही के भरे से कुल्लड़.
मिट्टी से बने थे, मिट्टी मे फेका है,
आज फिर अतीत के पन्नो को हमने पलट कर देखा है .-२
वो बुजुर्गों की शतरंज
और बुढ़िया के बाल
वो बदी की पतंगबाज़ी
और कमीज़ की बड़ी नाप
वो टेसू का पीला रंग
और कालिख का साँप
वो दाँतों मे खाड़िया दबाकर फिर माँ से छुपाना
और चार आने चुराकर छुपकर कॅमपॅट खाना.
वो गलियाँ अलग थीं जहाँ अपना बचपन महका है
आज फिर अतीत के पन्नो को हमने पलट कर देखा है .-२
गर गौर से देखें
उन पन्नो की लिखावट अब मिट रही है
जिंदगी है छोटे दायरे मैं सिमट रही है
गलियाँ सुनसान
मोहल्लों मैं सन्नाटा है
सर्दी की दोपहरों मैं भी सिर्फ़
राहगीर ही नज़र आता है
आज नही होती वो बैठक, वो अलाव जिसमे मूँगफली फोड़ खाते थे,
ना दिखती है वो सनकी बुढ़िया, जिसे पगली दादी चिढ़ाते थे.
ये माहौल ही अलग है, हर ठिठोली की सीमा रेखा है,
आज फिर वर्तमान को हमने अतीत से तौल कर देखा है. -२
अनुराग पांडेय