अभाव के दिन ही सही थे,
मैं मेरे दोस्त सब वहीं थे,
पड़ोसी के अमरूद तोड़ कर खाते थे,
कुछ मीठे सबमे बट जाते थे,
उन दाँतों के निशानो की कोई जात नही होती,
आज मेरे सपनों मे वो बात नही होती - २
दो जोड़ी मे पूरा साल कटता था,
भाइयों मे तब भी सामान बँटता था,
बड़े को कभी ज़्यादा मिल जाता था,
यह देख छोटा रो जाता था,
उस बँटवारे मे वैर की कोई बाँट नही होती,
आज मेरे सपनो मे वो बात नही होती - २
कुटिलता तब भी मन मे पलती थी,
पर पंचतंत्र की कहानियाँ जहन मे चलती थी,
ग़लत पर यूँ पछतावा होता था,
दुख़ पर गैरों के मन खुद रोता था,
इन आँखों से अब आँसुओं की बरसात नही होती,
आज मेरे सपनों मे वो बात नही होती - २
हम अब भी वहीं हैं,
पर अब मेरे दोस्त नहीं हैं,
हमने खुद यह बंधन काटे हैं,
दाँतों के निशान चार भागों मैं बाँटें हैं,
अब सिर्फ़ रात के अंधेरों से मुलाकात है होती,
आज मेरे सपनों मे वो बात नही होती - २
डर लगता है हर आहट पर,
शक होता है अपनों की चाहत पर,
कोसों दूर सी सुबह लगती है,
आँखें हैं यूँ अपलक जगती हैं,
चाहता हूँ हो पलकें भारी, ऐसी कोई रात नही होती,
आज मेरे सपनों मे वो बात नही होती - २
अनुराग पाँडेय