Friday, November 25, 2011

शब्द और मिल जाएँगे

" नर हो न निराश करो मन को " गुप्त जी की इन पंक्तियों को आधार मान कर इस रचना को लिखने का प्रयास किया है , उम्मीद करता हूँ आपको पसंद आएँगी -

पन्ने पलटो तो सही,
शब्द और मिल जाएँगे |
तुम चलना तो शुरू करो,
दोस्त तुमसे जुड़ जाएँगे |

ख़त्म समझते हो जिस कहानी को,
वो नया रुख़ लेगी |
मील के पत्थर पर पुराने चेहरे,
फिर तुम्हे दिख जाएँगे |

जिस राह पर तुम हो,
वो बे मंज़र ही सही |
कोई गाँव तो आने दो,
आशियाने भी बस जाएँगे |

खाली पड़े घरौंदों को,
देखकर इतना अफ़सोस क्यूँ |
कोई शहनाई तो बजने दो,
शामियाने और तन जाएँगे |

यह महफ़िल मददगारों की,
दो दिन की मेहमान ही सही |
खुशियाँ दिल से तो बाँटों,
जश्न और भी मन जाएँगे |

हर सुबह एक नयी सोंच,
एक ललक का नाम है ज़िंदगी |
तुम कोशिश तो करो पाने की,
वो पत्थर से भी निकल जाएँगे |

                         अनुराग पांडेय

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