Wednesday, November 10, 2010

पहलू

मनुष्य के जीवन के दो पहलू हैं, सुख और दुख़. दोनो पहलुओं मे बदलती मानसिकता का चित्रण करने की कोशिश है यह रचना. प्रभु के प्रति आस्था और अभक्ति दोनो भावों को दिखाती है यह. आशा है आपको पसंद आयेगी.

सुखी था धनी था तब देखा एक सपना
एक पथ था कॅंट युक्त पर तू तो था अपना,
उस पथ पर दो पग चिन्ह थे बने
जाती हुई दो धूमिल कयाओं के पैर रक्त से सने
बगल मे था मेरे देता मुझे सहारा
जब पार हुआ पथ वो संसार लगा प्यारा

अब जीवन की गति कुछ ऐसी है रुकी
बन गया हूँ निर्धन रोगी और दुखी

अब देखता हूँ क्या मैं,
पथ पर एक ही पग चिन्ह हैं बने
जाती हुई एक ही काया के पैर रक्त से सने
अब जब कष्टों ने है आ मुझको घेरा
तू भी सुख के साथ साथ छोड़ गया मेरा.

जब अंत हुआ सपना, एक प्रकाश पुंज आया
वो "तू" था उसमे तुझको मैने पाया
करुणामयी हान्थ मुझपर नेह से फेरा
बोले होगा अवश्य दूर यह कष्ट के अंधेरा

जब कष्टों के बादल हैं तुमको घेरे
वो पगचिन्ह बने हैं मुझसे वो काया है मेरी
तुम और कहीं नही हो पर गोद मे हो मेरी.

अपने प्रश्नो की दुनिया मैं मुझको क्यूँ लाते हो
मैं हर प्रश्न का उत्तर हूँ मेरी शरण मैं आओ
भगवान से हमेशा चाहा है कभी भगवान को भी चाहो.

                                                        अनुराग पांडेय

Tuesday, October 19, 2010

स्ट्रिक्ट मास्टर की व्यथा (व्यंग)

यह बारहवीं के दौरान एक चलन था की ज़्यादा सख़्त अध्यापक को शिश्य आड़े हान्थ लेते थे.
इसे यूँ कहूँ की आए दिन ऐसी ख़बरे अख़बारों मे आती थी. कोशिश की है उस व्यथा का चित्रण करने की. यह मेरी कलम की पहली रचना थी. पसंद आए तो लिखिएगा.


बर्रा के चौराहे पर देखा एक दृश्य
एक मास्टर का था वो ह्रिश्य
तन पर थी एक लंगोटी, गायब से सिर के बाल
जगह जगह कटी थी उसके शरीर की खाल
बह रहा था खून था हान्थ से दाबे
वहीं सड़क के किनारे पड़ी थी
एक टूटी साइकल कुछ बिखरी किताबें.

उसे घेरे कुछ लड़के खड़े थे अभद्र
कुछ लगते थे चंडाल,
कुछ लगते थे वीरभद्र
कुछ के हान्थो मे थी हाकी,
कुछ हान्थो मे थे डंडे,
इसमे कोई शक नही
सब उसी के स्कूल के थे मुस्टंडे

चौराहे के इर्द गिर्द काफ़ी भीड़ जमा थी
कुछ के लिए था लुफ्त का नज़ारा
कुछ के लिए गमगीन शाम की शमा थी
ना था किसी मे इतना साहस
वो उन कालदूतों को टोक पाता
उनके बढ़ते हुए हान्थो को
बीच मे ही रोक पाता.

तभी उसकी निगाह ने भीड़ का किया कातर दौड़ा
उसी समय किसी लड़के ने एक व्यंग छोड़ा
क्यूँ बे कहाँ गयी तेरी वो चतुराई
स्कूल मैं तो बहुत नक्शे झाड़ते थे
हम लोगों की कॉपी किताबें बे झिझक फाड़ते थे
अब चलाओ यहाँ अपना वो डंडा
हमे ऐसे देख कर पड़ गया जोश ठंडा.

पिट गया वो टूट गयी हड्डियाँ
ना था कोई साथ मे,
अकेले ही बना रहा था
अपनी बिखरी किताबों की गॅडीयान
सोंच रहा था क्या होगा इस देश का
जब उसका भविष्‍य होगा दानव रूपी भेष का.

कि अब वी श्रीमान मलहम लगाकर
अपने घावों की गहराई आँकतें हैं
उधर वो लड़के अपने दोस्तों मे
अपनी वीरता के कारनामे हांकते हैं

अब साला अगर दोबारा लेगा पंगा
तो इसबार तो छोड़ दी थी लंगोटी
अगली बार कर देंगे नंगा...

अंत मे इतना कहना चाहूँगा
यह ना कोई हास्य व्यंगपूर्ण कथा है
यह तो आजकल के स्ट्रिक्ट मास्टर की व्यथा है - २

                                                        अनुराग पांडेय

Tuesday, October 5, 2010

दीवाना पीलू (हास्य)

आपके मोहल्ले मे या यूँ कहूँ सबके मोहल्ले मे यह लड़ाइयाँ होती रहती हैं. चौपायों के लड़ने के पीछे की भावना हमे समझ मे नही आती है. वो मरते भी हैं तो हमे फ़र्क नही पड़ता जब तक वो आपके घर के सदस्य समान ना हों. ऐसी ही एक भावना और उससे जुड़ी एक घटना सुनाने का साहस कर रहा हूँ. आशा है आपको पसंद आएगी..


कि डेली पैंट शर्ट पहनने वाला पीलू
आज स्किन टाइट पहने
पीछे वाली गली मे खड़ा था
काफ़ी देर से गुप्ता जी के दरवाजे अड़ा था
नीचे गेट के जंगले से कोई झाँक रही थी
बाहर खड़े पीलू की पोज़िशन आंक रही थी

मुझे लगा अपने मोहल्ले की चिर परिचित पूसी है,
अरे नही दोस्तों यह तो गुप्ता जी की लूसी है.

बाहर खड़ा पीलू मंद मंद मुस्कुरा रहा था,
की "तुमसा नही देखा" यही गाना गा रहा था
तभी गुप्ताइन लूसी को लेकर बाहर आईं
देख लूसी को पीलू ने अपनी पूछ हिलाई

भाईसाहब उसके पीछे लग गये
इतने मे लूसी के भ्राता श्री जग गये.
अभी परसों ही इनसे झगड़े थे
और सेहत मैं इनसे मज़े के तगड़े थे
अभी कल ही बिछा बिछा कर मारा था
दवा दारू का खर्च आया हम पर सारा था
की आज फिर लूसी को छेड़ने जा रहे थे
दोबारा मार खाने का प्रोग्राम बना रहे थे.

हम उनसे पूछा "क्यूँ बे मरना है क्या ?"
अकड़ कर बोले प्यार किया तो डरना है क्या.

आज तो पीलू ने दीवानगी की हदे पार दी
देख लूसी को उसे आँख मारदी
की लूसी तो पीलू के ख्यालों मे खो गयी..
तभी बड़ी विकट एक अनहोनी हो गयी.

हाय हमारा पीलू था..... प्यारा,
बड़ी बुरी तरह बेरहमी से मारा.

उधर लूसी की डोली सज रही थी
इधर पीलु की मैयत उठ रही थी.

प्यारी लूसी को कोई और वर गया,
हाय हमारा दीवाना पीलू कंवारा मर गया - २

                                              अनुराग पांडेय

Tuesday, September 28, 2010

मेरे सपनो मे वो बात नही होती

अभाव के दिन ही सही थे,
मैं मेरे दोस्त सब वहीं थे,
पड़ोसी के अमरूद तोड़ कर खाते थे,
कुछ मीठे सबमे बट जाते थे,
उन दाँतों के निशानो की कोई जात नही होती,
आज मेरे सपनों मे वो बात नही होती - २

दो जोड़ी मे पूरा साल कटता था,
भाइयों मे तब भी सामान बँटता था,
बड़े को कभी ज़्यादा मिल जाता था,
यह देख छोटा रो जाता था,
उस बँटवारे मे वैर की कोई बाँट नही होती,
आज मेरे सपनो मे वो बात नही होती - २

कुटिलता तब भी मन मे पलती थी,
पर पंचतंत्र की कहानियाँ जहन मे चलती थी,
ग़लत पर यूँ पछतावा होता था,
दुख़ पर गैरों के मन खुद रोता था,
इन आँखों से अब आँसुओं की बरसात नही होती,
आज मेरे सपनों मे वो बात नही होती - २

हम अब भी वहीं हैं,
पर अब मेरे दोस्त नहीं हैं,
हमने खुद यह बंधन काटे हैं,
दाँतों के निशान चार भागों मैं बाँटें हैं,
अब सिर्फ़ रात के अंधेरों से मुलाकात है होती,
आज मेरे सपनों मे वो बात नही होती - २

डर लगता है हर आहट पर,
शक होता है अपनों की चाहत पर,
कोसों दूर सी सुबह लगती है,
आँखें हैं यूँ अपलक जगती हैं,
चाहता हूँ हो पलकें भारी, ऐसी कोई रात नही होती,
आज मेरे सपनों मे वो बात नही होती - २

                                                    अनुराग पाँडेय

Friday, September 17, 2010

शरण तेरी

तू कुलीन,
मैं मलिन सही.
तू निःस्वार्थ,
मैं स्वार्थी सही.
तू निष्काम,
मैं कामी सही.
तू निर्लोभ
मैं लोभी सही.

पर तेरी ही रचना का तो अंग हूँ,
इसलिए,
अपने जैसे अन्य उदाहरणों के संग हूँ.
मैं अविलंब तेरी शरण मैं आ जाऊँगा,
जब तेरे जैसा,
तेरी रचना मे,
कोई और उदाहरण पा जाऊँगा.

                                 अनुराग पांडेय



Friday, August 27, 2010

अतीत के पन्ने

आज फिर अतीत के पन्नो को हमने पलट कर देखा है ,
वो एक रुपये की चाय
और आठ आने के समोसे
वो कपड़े के झोले
और कागज के लिफाफे
वो घड़े मे रखा पानी
और पानी के बताशे
वो गली मोहल्ले मे बेबाकी के हुल्लड़,
और सोंधी मीठी दही के भरे से कुल्लड़.
मिट्टी से बने थे, मिट्टी मे फेका है,
आज फिर अतीत के पन्नो को हमने पलट  कर देखा है .-२

वो बुजुर्गों की शतरंज
और बुढ़िया के बाल
वो बदी की पतंगबाज़ी
और कमीज़ की बड़ी नाप
वो टेसू का पीला रंग
और कालिख का साँप
वो दाँतों मे खाड़िया दबाकर फिर माँ से छुपाना
और चार आने चुराकर छुपकर कॅमपॅट खाना.
वो गलियाँ अलग थीं जहाँ अपना बचपन महका है
आज फिर अतीत के पन्नो को हमने पलट  कर देखा है .-२

गर गौर से देखें
उन पन्नो की लिखावट अब मिट रही है
जिंदगी है छोटे दायरे मैं सिमट रही है
गलियाँ सुनसान
मोहल्लों मैं सन्नाटा है
सर्दी की दोपहरों मैं भी सिर्फ़
राहगीर ही नज़र आता है
आज नही होती वो बैठक, वो अलाव जिसमे मूँगफली फोड़ खाते थे,
ना दिखती है वो सनकी बुढ़िया, जिसे पगली दादी चिढ़ाते थे.
ये माहौल ही अलग है, हर ठिठोली की सीमा रेखा है,
आज फिर वर्तमान को हमने अतीत से तौल कर देखा है. -२

                                                                             अनुराग पांडेय

Wednesday, August 25, 2010

माँ मैं दूर देश क्यूँ जाता हूं

समय समय के अनुसारों मैं
निस दिन फँसता मझधारों मे
अविरत पतवार चलाता हूँ
माँ मैं दूर देश को जाता हूँ - २

रंग उत्सव की मधुर है बेला
मैं इस पार नितांत अकेला
सिर्फ़ श्वेत श्याम रह जाता हूँ
माँ मैं दूर देश को जाता हूँ - २

वहाँ रोचना राखी टीका
इधर मेरा उल्लास भी फीका
रेशम के तारों से खिंच भी नही मैं पाता हूँ
माँ मैं दूर देश को जाता हूँ - २

दूर दिवाली की झिलमिल से
शांत सूक्च्म से काठ के घर मे
एक दीप मैं भी जलाता हूँ
माँ मैं दूर देश को जाता हूँ - २

वो बहना के हान्थ की मेहंदी
अपना हो घर के सपने
अर्थजगत मे पिसता जाता हूँ
माँ मैं दूर देश को जाता हूँ - २

मैं पाषाण नही हूँ माता
वर्षपूर्ण एक ही अवसर आता
पितृ चरणों को जा छू पाता हूँ
माँ मैं दूर देश को जाता हूँ - २

प्रियजनो की बुझती आँखें
दरवाजे की ओर ही ताकें.
........................................
क्या देख नही मैं पाऊँगा
क्या मिल भी नही मैं पाऊँगा
.......................................
मैं दौड़ा भागा जाता हूँ
माँ मैं दूर देश से आता हूँ

माँ मैं जल्दी आता हूँ - २

                अनुराग पांडेय